Saturday, May 28, 2011

guru ji's grace....

तुम हो सागर, मै थी बूंद
तुमसे मिलकर, हो गयी पूर्ण!!

तुमसे जुडी ये जीवन धारा
"मै" को खोया, तुमको पाया
तुमने किया जो रौशन मुझको
डोर होगया सब अँधियारा
अब जब "सोहम" ज्ञान मिला,
तब समझी थी कितनी मूढ़
तुमसे मिल कर हो गयी पूर्ण!!

नित्य सुदर्शंक्रिया सिखाते
सेवा, प्रेम का मार्ग बताते
सहज नयन से मुस्काके तुम
"सबमे ईश्वर" हो दिखलाते
सबकुछ सिखला बतलाके भी
कभी नहीं जाते हो दूर
तुमसे मिल कर होगई पूर्ण!!

गुरु जी तुमसे जो दिल लग जाये
पुस्पहीन जीवन खिल जाये
फिर कितने भी सुख-दुःख आये
जिन संग आप वो क्यों मुरझाये
"तुम" "मै" का सब भेद मिटा
सारे भाव हो गए शुन्य
तुमसे मिलकर होगई पूर्ण!!
तुमसे मिलकर होगई पूर्ण!!
दादी माँ तुम्हारे लिए....

निर्मल धवल हिमानी जैसी
तुम करुना और प्रेममयी
सागर जैसा हिर्दय तुम्हारा
हम सबकी हो आदरणीय

प्रेम, स्नेह, करुणा, मर्यादा
ये सरे है नाम तुम्हारे
इनसे ही बनकर तुमने
सिखलाये हमको ये गुण सरे

सिखलाया जो कुछ भी तुमने
उस पर चलना हर पल है
बतलाया जो कुछ भी तुमने
वो अब जीना हर पल है

सृजित किया जो अंकुर तुमने
सत्कम तपस्या की मिट्टी से
सबल, सफल यह एकरूप
परिवार उसी का प्रतिफल है....

कुहासे में थोडा नीलापन है...

ये नयी विजय का सुभारम्भ है,
पुनः एक नयी यात्रा,
एक नयी ख़ोज और सोच
अकर्मण्यता का अँधेरा
दूर होता धूमिल होने को है,
कुहासे में थोडा नीलापन है...

दीप्त होते छितिज से
जो धुआ धुआ सा लहरो पे,
हवा संग झिलमिला रहा है,
हाँ, सूर्य मेरा अब पूर्ण होने को है
कुहासे में......

नया नया कुछ पुलिंदा सा
देर से ही सही बनेगा जरुर
मेरा स्वप्न विश्व विजय का
देर से ही सही खिलेगा जरुर
बर्फीले शिशिर के बाद
हेमंत का बसेरा होने को है
कुहासे में......

लहरो पे भरोसा
अम्बुधि को समर्पण
यही इस यात्रा का सारांश है
धन्य है वह
जो बाधा चले डटा रहे
वाही वीर सौर्य है,संधान है
विजयी है वह, जो नियति से नहीं
मन से जिवंत है
अपनी जीत से विश्वस्त है
अनंत कालिक इस यात्रा का,
इक और वृतांत होने को है
कुहासे में....
दादीमा तुम बहुत याद आती हो.

दादीमा तुम बहुत याद आती हो.
जब भी मन उदास और
सत्व कहीं खोने लगता है,
जब भीड़ में शामिल पर
अकेला मन,
तुम्हे ढूंढने लगता है
तब खिलखिलाती, पुचकारती,
नैनों से स्नेह लुटती हुई,
तुम बहुत याद आती हो

जब कभी गिर जाये हम
और कहीं चोट लग जाये,
या कभी लड़ते-झगड़ते
किसी की मर पड़ जाये,
तब डाटती-डपटती, सब पर चिल्लाती
ममता से मलहम लगाती हुई,
तुम बहुत याद आती हो.

आज जब हर कोई व्यस्त है
निजी स्वार्थो में ग्रस्त है
हनी-लाभ के गडित से त्रस्त है
तब सदैव दूसरो के लिए जीती
अपने जीवन की याद दिलाती हुई,
तुम बहुत याद आती हो

शायद दूर होकर भी,
मेरे खालीपन में मेरे पास आती हो
दादीमा तुम बहुत याद आती हो