कितनी ही बार॥
बढाये मैंने कदम
पहुचने को उस पार
पर हर बार....
लहरों के भवर में जाकर
रुक जाती मेरी पतवार
हिलोरो के बीच डगमगाती नाव
कभी इस पार, कभी उस पार
ठुठ सा खड़ा मै,
मन के उफान को समेटता
शायद विचार करता.......
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इस पार तुम्हारे साथ
होने का एहसास है
तुम न आओ कभी भी...
फ़िर भी पलकों को तुमसे आस है,
तुम्हारी सांसो में बस्ती खुशबु का,
मेरी आत्मा पर साम्राज्य है....
मेरे जीवन के अंगारों पर
तुम्हारी चाँद की सी शीतलता का हाथ है
न हो तुम मेरे साथ तो क्या॥
तुम्हारा अस्तित्व तो इसी पार है।
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फ़िर क्यों????
कितनी ही बार
बढाये मैंने कदम
पहुचने को उस पार....-
-जहाँ मात्र एक उम्मीद का साथ है
जो इस पार नही....
उस पार होने का आभास है,
मात्र आभास, कल्पना, और अंधकार
फ़िर क्यों???
कितनी ही बार......
अब इस भ्रम को मिटाओ
मेरी नाव को इस पार
अथवा उस पार पहुचाओ
मौन रहकर ही सही.....
सहज कुछ चेतना तो जगाओ
नही तो मै
मजधार में ही डूब जाऊंगा,
तुम्हे न पाकर मै
किस भाति जी पाउँगा?
तुममे ही सिमट जाना
तुम maya हो जाना
तुमसे ही prkash pana
मै चाहता hu
और चाहता hu
milna बार-बार
फ़िर क्यों????
कितनी ही बार......
अब न करो pratikaar
batalaa दो मुझे
इस पार या उस पार..